◆20 सितम्बर को आहूत इस आंदोलन की तैयारी को अंतिम रूप देने में जुटे है कुड़मी समाज के लोग
RANCHI (रांची)। झारखंड, बंगाल और ओडिशा में कुड़मी जाति को आदिवासी (एसटी) का दर्जा देने का सवाल एक बार फिर सुलग रहा है। इस जाति-समाज के संगठनों ने आगामी 20 सितंबर से “रेल टेका, डहर छेका” (रेल रोको-रास्ता रोको) आंदोलन का ऐलान किया है। इन संगठनों का दावा है कि इस बार आंदोलन में गांव-गांव से आने वाले हजारों लोग रेल पटरियों और सड़कों पर तब तक डटे रहेंगे, जब तक केंद्रीय गृह मंत्रालय और जनजातीय कार्य मंत्रालय कुड़मी को एसटी का दर्जा देने की बात लिखित तौर पर नहीं मान लेता।
आदिवासियों के अस्तित्व पर हमला : आदिवासी समाज
दूसरी तरफ आदिवासियों के संगठन कुड़मी जाति की इस मांग पर विरोध जता रहे हैं। आदिवासी संगठनों का कहना है कि कुड़मियों को एसटी का दर्जा देने की मांग आदिवासियों के अस्तित्व पर हमला है। ऐसी स्थिति में कुड़मी आंदोलन से एक बार फिर आदिवासी संगठनों की भी नाराजगी बढ़ सकती है। पिछले साल सितंबर और अप्रैल 2023 में भी कुड़मी संगठनों के हजारों लोगों ने लगातार पांच दिनों तक झारखंड और बंगाल में कई स्टेशनों पर धरना दिया था। इस आंदोलन की वजह से दोनों बार रेलवे को तकरीबन 250 ट्रेनें रद्द करनी पड़ी थीं। हावड़ा-मुंबई रूट सबसे ज्यादा ज्यादा प्रभावित हुआ था। एनएच-49 भी कई दिनों तक जाम रहा था और सैकड़ों गाड़ियां जहां की तहां फंस गई थीं।
झारखण्ड के 4 और बंगाल उड़ीसा के 2-2 रेल स्टेशनों पर होगा चक्का जाम
कुड़मी संगठनों का दावा है कि इस बार 20 सितंबर से झारखंड के चार मनोहरपुर, नीमडी, गोमो एवं मुरी, बंगाल के दो कुस्तौर एवं खेमाशुली और ओडिशा के दो रायरंगपुर एवं बारीपदा स्टेशन पर हजारों लोग एक साथ रेल पटरियों पर डेरा डाल देंगे। इलाके से गुजरने वाले प्रमुख एनएच को भी रोक दिया जाएगा। आदिवासी कुड़मी समाज के केंद्रीय प्रवक्ता हरमोहन महतो ने कहा है कि इस बार “रेल टेका, डहर छेका” आंदोलन अभूतपूर्व होगा। इस दौरान झारखंड की खनिज संपदा को बाहर जाने से रोका जायेगा।
जुटेंगे तीन राज्यों के कुड़मी जाति के स्त्री-पुरुष
इसमें तीनों राज्यों के गांव-गांव से कुड़मी जाति के स्त्री-पुरुष जुटेंगे। आंदोलन को अनिश्चित काल तक जारी रखने की तैयारी के तहत गांव-गांव में एक मुट्ठी चावल और यथासंभव चंदा जुटाने की मुहिम चलाई गई है। दरअसल झारखंड, बंगाल और ओडिशा में रहने वाले कुड़मी जाति के लोगों का दावा है कि 1931 तक मुंडा, मुंडारी, संथाली आदि के साथ कुड़मी भी आदिम जनजाति (प्रिमिटिव ट्राइब) की सूची में शामिल था। देश आजाद होने के बाद छह सितंबर, 1950 को जब संसद में जनजातियों की सूची प्रस्तुत की गई, तो उसमें कुड़मी नहीं था। इसका लोकसभा में उपस्थित 15 सांसदों ने विरोध किया था। कुड़मी समाज के नेताओं का कहना है कि एक साजिश के तहत इसे आदिवासी की सूची से हटाया गया।
कुड़मी जाति के इस मांग पर आदिवासी समाज ने जताया है ऐतराज
दूसरी तरफ, कुड़मियों की इस मांग पर आदिवासी समाज को सख्त ऐतराज है। यूनाइटेड फोरम ऑफ ऑल आदिवासी ऑर्गेनाइजेशन (यूएफएएओ) के नेता बंगाल निवासी सिद्धांत माडी का कहना है कि कुड़मियों की यह मांग आदिवासियों की पहचान पर हमला है। कुड़मी परंपरागत तौर पर हिंदू हैं और वे गलत आधार पर आदिवासी दर्जे के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। झारखंड की पूर्व गीताश्री उरांव ने पिछले दिनों आदिवासियों की एक रैली को संबोधित करते हुए कहा था- “कुड़मी समाज की नजर अब आदिवासियों की जमीन-जायदाद पर टिकी है। उनकी मंशा आदिवासियों के लिए सुरक्षित संवैधानिक पदों को हाईजेक करने की है। इसे आदिवासी समाज कतई बर्दाश्त नहीं करेगा। अपने हक-अधिकार और अस्तित्व की रक्षा के लिए समस्त आदिवासियों का एकजुट रहना होगा।”